राकेश कुमार।
अल्लाह की इबादत का पाक माह-ए-रमजान समाप्त होने को है। रमजान के अंतिम जुमे को अलविदा की नमाज अदा की गई। चांद अगर शनिवार को नजर आया तो रविवार को ईद होगी, चांद रविवार को नजर आएगा तो सोमवार को ईद होगी। लेकिन कोरोना के कहर से बचने के लिए किये गए लॉकडाउन ने चुनावी वर्ष होने के बाद भी रमजान के उल्लास और राजनीति को किरकिरा कर दिया है। कोरोना ने राजनीति के इफ्तार की रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया है। रमजान में टोपी पहनकर इफ्तार पार्टी करने वाले नेताओं को समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें। अगर इफ्तार कराते हैं तो लॉकडाउन के उल्लंघन का खतरा, नहीं कराते हैं तो वोट बैंक खिसकने का खतरा बना हुआ है। सबसे अधिक मायूसी गांव तथा वार्ड स्तर के नेताओं में है, जो इस पाक महीने में घूम-घूमकर इफ्तार पार्टी का मजा लेते थे, अपने आकाओं से हाथ मिलाते थे। ये अपने गांव-मुहल्ला के लोगों को इफ्तार पार्टी में लाकर अपना स्टेटस दिखाते थे, राजनीति की रोटियां सेंकते थे।
माह-ए-रमजान के इफ्तार का आयोजन राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की हैसियत का पैमाना भी था कि किस राजनेता के इफ्तार में ज्यादा टोपीवालों की भीड़ जुटती है। किसी भी नेता के यहां इफ्तार के बाद विरोधी उसकी संख्या का अंदाजा लगाते थे कि कितने रोजेदारों और नमाजियों की भीड़ जुटी। उसी आधार पर भीड़ जुटाने के लिए तिकड़म की जाती है और उससे अधिक भीड़ जुटाने के लिए खजाना खोल दिया जाता था। इफ्तार के लिए निर्धारित जगह तक लोगों को लाने के लिए लक्जरी वाहनों की व्यवस्था तक की जाती थी। सब कुछ व्यवस्थित होने के साथ ही लजीज व्यंजन के साथ ही तकरीर का भी लाभ रोजेदार और नमाजी उठाते थे। इसमें सिर्फ रोजेदार ही नहीं बड़ी संख्या में पार्टी-नेताओं के समर्थक भी जुटते थे। रोजेदार मुस्लिम समाज से अधिक भीड़ मुसलमानों को कोसने वालों की होती थी। राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता पार्टी देने वाले को अपनी एक झलक दिखाने के लिए लालायित रहते थे और इफ्तार के बहाने सियासत भी होती थी। गठबंधन धर्म का असली पालन इफ्तार में ही देखा जाता था। सत्ता के समीकरण के साथ ही गठबंधन धर्म के चलते नेताओं का जमावड़ा भी अलग होता था। लेकिन कोरोना ने इनके अरमानों पर पानी फेर दिया है। बिहार विधानसभा का चुनावी वर्ष होने के कारण विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने बड़ी उम्मीद पाल रखी थी।
जनवरी से ही प्लान बना रहे थे कि अप्रैल-मई में होने वाले रमजान में इस बार अन्य वर्षोंं की भांति कुछ अलग करना है, ताकि एक ओर आलाकमान तक उनके समर्थकों की भीड़ का दृश्य पहुंच जाए और टिकट पाने में आसानी हो, तो दूसरी ओर उनका वोट बैंक भी सशक्त हो। रमजान में इफ्तार के लिए कई तरह के प्लान बनाए गए थे, बड़ी-बड़ी तैयारियां की गई थींं। लेकिन कोरोना वायरस ने उनके सारे प्लान को धराशाई कर दिया है। सिर्फ इफ्तार पार्टी का ही प्लान धराशाई नहीं हुआ है, बल्कि मोतिहारी के सभी बारह विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ने का तिकड़म भिड़ाने वाले 50 से अधिक नेताओं का अल्पसंख्यक समाज के दरवाजे पर जाकर सेवई और फल खाने का भी जुगाड़ भी फेल हो गया है। उन्होंने प्लान बनाया था कि रमजान शुरू होने से पहले दिन से ही अपने क्षेत्र के मुस्लिम बहुल सभी इलाकों का भ्रमण करेंगे, उनके साथ बैठेंगे, सिवई खाएंगे। लेकिन कोरोना ने सिवई खाना तो दूर एक दूसरे से हाथ मिलाना भी मुश्किल कर दिया। अंतिम रोजा के अगले दिन ईद होती थी तो सुबह से ही झकाझक कुर्ता -पजामा पहन नेतागण विभिन्न मैदानों में जाकर एक दूसरे को गले लगाकर बधाई देते थे। लेकिन इस साल ना तो इफ्तार कर रहे हैं, ना हीं सिवई खा रहे हैं और ना ही गले लगने की बात सोच रहे हैं। पिछले साल इफ्तार के दौरान कुछ नेताओं के यहां टोपी बच गयी थी तो उन्होंने सहेज कर रखा था, लेकिन इस बार टोपियां रखी की रखी ही रह गईंं।
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