भोजपुरी गानों व फिल्मों में अश्लीलता

भोजपुरी गानों व फिल्मों में अश्लीलता

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डॉ. लक्ष्मी कुमारी आजकल भोजपुरी गानों/फिल्मों में अश्लीलता का मुद्दा फिर से छाया हुआ है। इस तरह के गानों/ फिल्मों के चलते बाहर में बिहारी मजाक के पात्र बने हुए हैं तो वहीं इसकी वजह से महिलाएं आते जाते राह में असहज महसूस करती हैं। इन्हीं सब कारणों से बिहार सरकार ने हाल फिलहाल में […]

डॉ. लक्ष्मी कुमारी

आजकल भोजपुरी गानों/फिल्मों में अश्लीलता का मुद्दा फिर से छाया हुआ है। इस तरह के गानों/ फिल्मों के चलते बाहर में बिहारी मजाक के पात्र बने हुए हैं तो वहीं इसकी वजह से महिलाएं आते जाते राह में असहज महसूस करती हैं। इन्हीं सब कारणों से बिहार सरकार ने हाल फिलहाल में ही परिवहनो में इसके बजने पर रोक लगाई। भोजपुरी गानों/फिल्मों की ऐसी दुर्दशा सोचनीय है। पर, हमेशा से ऐसी स्थिति नहीं थी। भोजपुरी भाषा की एक समृद्ध विरासत रही है। इस भाषा के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर ने इसे ऊंचाइयों पर पहुंचाया। वर्ष 1963 में प्रदर्शित भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैबो ‘ ने देशव्यापी पहचान बनाई जो भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के प्रेरणा से बनी थी और जिसमें नामचीन कलाकारों ने काम किया था। भोजपुरी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। लेकिन, समय के साथ-साथ इसमें गिरावट देखने को मिली और आज स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसे गानें /फिल्में क्यों बन रहे हैं क्योंकि मांग है, तभी आपूर्ति है। इसकी एक बड़ी वजह से रूबरू होते हैं। हम जानते हैं कि बिहार से बाहर भारी तादाद में बिहारी मजदूर रहते हैं। जिनकी मजदूरी कम है, वो परिवार को साथ में नहीं रख पाते। उनके लिए खाली समय में भोजपुरी गाने/फिल्में मनोरंजन का एक बहुत बड़ा माध्यम है। दूसरे शब्दों में, जैसे जैसे पलायन बढ़ा, वैसे वैसे इसमें अश्लीलता बढ़ती गई। साथ ही, ये चीज कहीं न कहीं बिहार की अस्मिता से भी जुड़ा हुआ है। एक और बात देखने को मिलती है कि भोजपुरी गानों/फिल्मों में महिला रिश्तेदारों को संबद्ध कर अपशब्द का प्रयोग किया जाता है, वह उनका अपमान है। आजकल जिस तरह से इनमें महिला कलाकारों को वस्तु की तरह प्रस्तुत किया जाता है, वो महिला विरोधी होने के साथ-साथ उनके विरुद्ध हिंसा/अपराध में कहीं न कहीं बढ़ावा देता है। अब समाधान की बात करें तो कुछ बिंदु उल्लेखनीय है: 1. भोजपुरी फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड जैसे आयोग का गठन। 2. प्रतिष्ठित फिल्म/संगीत निर्माताओं को बढ़ावा देना। 3. अभिजात वर्ग को अलगाव खत्म कर इसे जुड़ना होगा। 4. अच्छे भोजपुरी गानों/फिल्मों के लिए पुरस्कार की घोषणा 5. भोजपुरी भाषा को सम्मानजनक स्थान दिलाना। समग्र दृष्टिकोण की बात करें तो संसाधनों की कमी का रोना रोने वाली (केंद्र/राज्य) सरकारों ने भी यहां की कला-संस्कृति तथा भाषा को समृद्ध करने की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया, चाहे वह भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में डालने का मसला हो या भोजपुरी पेंटिंग को उभारने की बात। यह बहुत दुख की बात है कि भारत तो छोड़िए, बिहार के ही एकाध विश्वविद्यालय को छोड़कर शायद ही कहीं भोजपुरी की पढ़ाई होती है। सरकार को इन सबको बढ़ावा देने के लिए उचित नीति बनाने की सोचनी चाहिए। जब हम ही अपनी चीजों को लेकर आत्मविश्वासी नहीं रहेंगे तो दूसरों से इज्जत पाने की उम्मीद करना बेमानी है! इस संदर्भ में, सरकार और भोजपुरी फिल्म उद्योगी के बीच स्तर ऊंचा करने को लेकर परस्पर वार्ता होनी चाहिए जिससे कि इसके राह में पड़ने वाली बाधाओं को दूर करने में सहायता मिले। सारांश में कहें तो जिस जगह से वात्सायन जैसे व्यक्तित्व आते हों और लोक-गीतों में खुलापन रहा हो, वहां पूर्णतः प्रतिबंध लगाकर यौन-कुंठा को बुलावा भी नहीं देना है, लेकिन कौन से स्थान पर क्या हो, इसका ख्याल रखा जाना चाहिए। अश्लीलता के खिलाफ मुहिम में जाति, वर्ग विशेष आदि को छोड़कर कलाकार से लेकर आमजनों को भी पक्ष लेना पड़ेगा जिससे साफ-सुथरी भोजपुरी फिल्मी/गानों का निर्माण हो ताकि भविष्य में हम शर्मिंदा महसूस ना करें। 

(लेखिका वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा में प्रोफेसर हैं।)

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