बिगनी मलाहीन : धुआं जो कुछ घरों से उठ रहा है, न पूरे शहर पे छा जाए तो कहना...
अखिलेश सिंह का कार्यकर्ता सम्मेलन के मायने
सागर सूरज
मोतिहारी। “कितना बदनसीब है जफ़र दफन के लिए, दो गज जमीन भी न मिले कुए यार मे”, ये पंक्तियाँ हिंदुस्तान के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफ़र के द्वारा तब लिखी गई, जब वे अपने जीवन के अंतिम दिनों मे वर्मा के राजधानी रंगून मे कैप्टन नेल्सन डेविस नामक अंग्रेज के कैद मे थे।
बिगनी मलाहीन ने आगे कहा सुल्तान के मृत्यु के वक्त कैदखाने मे बदबू फैली हुई थी। नंगा सर तकिये पर था। चादर गिरी हुई थी। सूखे होंठों पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी। ऐसा लग रहा था, जैसे जफ़र कोई बादशाह नहीं बल्कि कोई भिखारी है। अंतिम दिनों मे बादशाह की ये हालत देख उस्ताद हाफिज इब्राहीम देहलवी के आँखों के सामने 30 सितांबेर 1837 के मंजर दौड़ने लगे जब 62 साल की उम्र मे बहादुर शाह जफ़र का तख्तनशीं हुआ था। वो वक्त कुछ और था। ये वक्त कुछ और।
बादशाह की कहानी को खत्म करते ही बिगनी मलाहीन जिला भाजपा के वरिय नेता सह बिहार भाजपा के किसान प्रकोष्ठ के पूर्व अध्यक्ष अखिलेश सिंह के कार्यकर्ता सम्मेलन पर टिप्पणी करना चाहती थी। अंगुलियों में बीड़ी सुलग ही रही थी, इसी बीच सवालों ने बिगनी को हाउस वाइफ से नेता बना दिया फिर क्या था, उसके बाद मोतिहारी की राजनीति के परिपेक्ष में बिगनी साहब पर बरसने लगी, बोली- अखिलेश जी ने अपना जीवन भाजपा को दे दिया।
विद्यार्थी परिषद, युवा मोर्चा से शुरू उनकी यात्रा आज तक भाजपा के लिए समर्पित है। बिगनी ने कहा, “आखिर अखिलेश भी साहब के कुनवे से बाहर निकल ही गए। करते भी क्या, उनके बाद राजनीति शुरू किए कई लोग विधायक और सांसद तक बन गए थे और इनको साहब सिर्फ झुनझुना ही थमाते रहे। बिगनी बोली बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों ने कैद कर वो हालत बना दी थी, लेकिन मोतिहारी के सात बार सांसद रहे साहब की हालत बहादुर शाह जफर की तरह नहीं हो सकती क्योंकि अब हम अंग्रेजों से आजाद हो चुके है। परंतु ये तो सच है की परिस्थियाँ हमेशा एक सी नहीं होती। साहब पहले राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से हटे, फिर सूत्रों के अनुसार यूपी चुनाव समिति से भी हट गए अब उनके हाथ मे भी रेलवे वाला झुनझुना ही तो है।
इस बार बिगनी ने बीड़ी के लंबे कश लिये और धुआं के पीछे उसका चेहरा ढक चुका था। जब धुआं छाँटा तो बिगनी के और बिगड़े बोल निकलने लगे। अखिलेश सिंह के द्वारा आहूत बैठक साहब के विरुद् बुलाई गई थी, बैनर से भी साहब गायब थे। अखिलेश जी ने अपने भाषण मे भी इंगित कर दिया की वे साहब के कुनवे से बाहर हो चुके है। एक तरह से जिले मे साहब के विरोधी नेताओं और कार्यकर्ताओं का परोक्ष रूप मे अखिलेश ही नेतृत्व कर रहे है। भले से अखिलेश सार्वजनिक रूप से यह बात स्वीकार नहीं करे लेकिन साहब के संसदीय क्षेत्र मे निकलने वाला उनका रथ साहब विरोध का रथ ही होगा।
कई नेता, कार्यकर्ता जो टिकट कटने के डर से मुखर रूप से साहब का विरोध नहीं कर रहे है, उनका भी मौन समर्थन अखिलेश के साथ है। भाजपा के पूर्व एमएलसी बबलू गुप्ता, विधायक पवन जायसवाल जैसे कई भाजपा नेता पूर्व से ही साहब के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए है। ऐसे मे अखिलेश सिंह का खुल कर मैदान मे आने के मायने भी खास है, ऐसे मे आगामी चुनाव मे अगर साहब की टिकट कट गई तो फिर साहब की हालत भी अगर हिंदुस्तान के आखिरी सुल्तान की तरह हो जाएगा इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
बता दें कि बिगनी हजारों शोषित पीड़ित लोगों की प्रतीकात्मक आवाज है, जो समय–समय पर राजनीतिक, सामाजिक तस्वीरों को साझा करती रहती है।
वैसे साहब 2019 के संसदीय चुनाव में अपनी अंतिम चुनाव मीडिया से बोल कर मोदी लहर का लाभ तो ले लिए, इस बार सुशील मोदी के मुँह से खुद के प्रत्याशी होने की घोषणा करवा कर साहब फिर से टिकट की जुगत मे लग गए है। लेकिन पार्टी का 70 वर्ष से ऊपर और चार बार सांसद वाला प्लान साहब के गले की हड्डी बन गई है। टिकट नहीं मिलने पर साहब चाहेंगे उनका कोई यस मैंन यानि पपेट सांसद बने। बिगनी के हमले खत्म होने वाली नहीं थी, लेकिन बीड़ी खत्म हो गई थी और सूरज भी डूबने वाला था, अगर ऐसा ही रहा तो कथित भीष्म पितामह का राजनीतिक सूरज 2024 मे अस्त हो सकता है और साहब वाण के शैया पर लेटे –लेटे अपने कुनवे से बाहर गये लोगों को सियासत मे समाँ बांधते देखते रहेंगे।
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