हिंदी में बोलने पर सजा ?

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डॉ. वेदप्रताप वैदिक आयुष मंत्रालय के सचिव राजेश कोटेचा ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। द्रमुक की नेता कनिमोझी ने मांग की है कि सरकार उन्हें तुरंत मुअत्तिल करे, क्योंकि उन्होंने कहा था कि जो उनका भाषण हिंदी में नहीं सुनना चाहे, वह बाहर चला जाए। वे देश के आयुर्वेदिक वैद्यों और […]
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आयुष मंत्रालय के सचिव राजेश कोटेचा ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। द्रमुक की नेता कनिमोझी ने मांग की है कि सरकार उन्हें तुरंत मुअत्तिल करे, क्योंकि उन्होंने कहा था कि जो उनका भाषण हिंदी में नहीं सुनना चाहे, वह बाहर चला जाए। वे देश के आयुर्वेदिक वैद्यों और प्राकृतिक चिकित्सकों को संबोधित कर रहे थे। इस सरकारी कार्यक्रम में विभिन्न राज्यों के 300 लोग भाग ले रहे थे। उनमें 40 तमिलनाडु से थे। जाहिर है कि तमिलनाडु में हिंदी-विरोधी आंदोलन इतने लंबे अर्से से चला आ रहा है कि तमिल लोग दूसरे प्रांतों के लोगों के मुकाबले हिंदी कम समझते हैं। यदि वे समझते हैं तो भी वे नहीं समझने का दिखावा करते हैं। ऐसे में क्या करना चाहिए? कोटेचा को चाहिए था कि वे वहां किसी अनुवादक को अपने पास बिठा लेते। वह तमिल में अनुवाद करता चलता, जैसा कि संसद में होता है। दूसरा रास्ता यह था कि वे संक्षेप में अपनी बात अंग्रेजी में भी कह देते लेकिन उनका यह कहना कि जो उनका हिंदी भाषण नहीं सुनना चाहे, वह बाहर चला जाए, उचित नहीं है। यह सरकारी नीति के तो विरुद्ध है ही, मानवीय दृष्टि से भी यह ठीक नहीं है। महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के प्रणेता थे लेकिन गांधीजी और लोहियाजी क्रमशः ‘यंग इंडिया’ और ‘मेनकांइड’ पत्रिका अंग्रेजी में निकालते थे। उनके बाद इस आंदोलन को देश में मैंने चलाया लेकिन मैं जवाहरलाल नेहरु विवि और दिल्ली में विवि में जब व्याख्यान देता था तो मेरे कई विदेशी और तमिल छात्रों के लिए मुझे अंग्रेजी ही नहीं, रूसी और फारसी भाषा में भी बोलना पड़ता था। हमें अंग्रेजी भाषा का नहीं, उसके वर्चस्व का विरोध करना है। राजेश कोटेचा का हिंदी में बोलना इसलिए ठीक मालूम पड़ता है कि देश के ज्यादातर वैद्य हिंदी और संस्कृत भाषा समझते हैं लेकिन तमिलभाषियों के प्रति उनका रवैया थोड़ा व्यावहारिक होता तो बेहतर रहता। उनका यह कहना भी सही हो सकता है कि कुछ हुड़दंगियों ने फिजूल ही माहौल बिगाड़ने का काम किया लेकिन सरकारी अफसरों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपनी मर्यादा का ध्यान रखें। यों भी कनिमोझी और तमिल वैद्यों को यह तो पता होगा कि कोटेचा हिंदीभाषी नहीं हैं। उन्हीं की तरह वे अहिंदीभाषी गुजराती हैं। उनको मुअत्तिल करने की मांग बिल्कुल बेतुकी है। यदि उनकी इस मांग को मान लिया जाए तो देश में पता नहीं किस-किस को मुअत्तिल होना पड़ेगा। कोटेचा ने कहा था कि मैं अंग्रेजी बढ़िया नहीं बोल पाता हूं, इसलिए मैं हिंदी में बोलूंगा। जब तक देश में अंग्रेजी की गुलामी जारी रहेगी, मुट्ठीभर भद्रलोक भारतीय भाषा-भाषियों को इसी तरह तंग करते रहेंगे। कनिमोझी जैसी महिला नेताओं को चाहिए कि वे रामास्वामी नाइकर, अन्नादुराई और करुणानिधि से थोड़ा आगे का रास्ता पकड़ें। तमिल को जरुर आगे बढ़ाएं लेकिन अंग्रेजी के मायामोह से मुक्त हो जाएं।

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