
आर.के. सिन्हा किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिकों को अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन का अधिकार है। यह अधिकार मिलना भी चाहिये और यही लोकतंत्र की आत्मा है। जरूरी नहीं कि हर नागरिक सरकार के हरेक फैसले से खुश हों। इसलिए आंदोलन ही उनके पास विकल्प भी बचता है। लेकिन इस क्रम […]
आर.के. सिन्हा
किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिकों को अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन का अधिकार है। यह अधिकार मिलना भी चाहिये और यही लोकतंत्र की आत्मा है। जरूरी नहीं कि हर नागरिक सरकार के हरेक फैसले से खुश हों। इसलिए आंदोलन ही उनके पास विकल्प भी बचता है। लेकिन इस क्रम में आंदोलनकारियों का मुख्य मार्गों और हाईवे को जाम करना गंभीर अलोकतांत्रिक मामला है। इससे उन आम लोगों को भारी असुविधा होती है, जो बहुमत में हैं पर आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं। इस बहुसंख्य पीड़ितों में अस्पतालों में इलाज के लिए जाने वाले रोगियों से लेकर कारोबारी, नौकरीपेशा, विद्यार्थी और दूसरे तमाम लोग शामिल होते हैं। इसी कारण शायद बहुसंख्यक शेष लोगों का आंदोलन को नैतिक समर्थन प्राप्त नहीं हो पाता है।
मौजूदा किसान आंदोलन को ही लें। इसके कारण दिल्ली की हरियाणा और उत्तर प्रदेश से लगने वाली सीमा पर किसानों ने सड़कों पर डेरा जमाया हुआ है। उनकी मांगों पर विचार भी हो रहा है। सरकार बार-बार कह रही है कि वह उनके साथ किसी भी तरह का अन्याय नहीं करेगी। खेती और किसान के बिना भारत की कल्पना संभव नहीं। किसानों के सड़कों पर बैठने के कारण आंदोलन का असर दिल्ली से दूर तक हो रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के प्रदर्शन का असर दिख रहा है। मेरठ, मुजफ्फरनगर, बागपत में भी अनेकों किसान सड़कों पर उतर गए हैं और हाइवे जाम हो रहे हैं। भारतीय किसान यूनियन की ओर से कृषि कानून के खिलाफ ये किसान सड़कों पर उतरे हुए हैं। जिसका असर दिखना भी शुरू हो गया है। अब किसानों की ओर से दिल्ली-देहरादून हाइवे पर जाम लगाया जा रहा है। किसानों की मांग है कि कृषि कानूनों का वापस होना जरूरी है। यह एमएसपी और मंडी को लेकर स्थिति साफ करने की भी मांग कर रहे हैं।
शाहीन बाग धरना और दिल्ली का कष्ट
आपको याद होगा कि दक्षिण दिल्ली के शाहीन बाग में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में चले विरोध-प्रदर्शन के दौरान सड़क पर अतिक्रमण कर बैठी जिद्दी भीड़ के कारण महीनों तक दिल्ली को भारी कष्ट हुआ था। अंत में उन्हें सड़क से हटाने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला दे दिया। अपने अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विरोध प्रदर्शन एक सीमा तक हों, अनिश्चितकाल तक नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि “धरना-प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक स्थलों को नहीं घेरा जाए। इससे आम जनता के अधिकारों का हनन होता है। कोई भी प्रदर्शनकारी समूह या व्यक्ति सिर्फ विरोध प्रदर्शनों के बहाने सार्वजनिक स्थानों पर अवरोध पैदा नहीं कर सकता है और सार्वजनिक स्थल को रोक नहीं सकता है।” माफ करें, शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी तो हद ही कर रहे थे। कोरोना वायरस के कहर की अनदेखी करने वाले शाहीन बाग में बैठे प्रदर्शनकारियों को अंततः दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जबरदस्ती हटाया था।
वे कोरोना वायरस से बेपरवाह धरने को खत्म करने की तमाम अपीलों को भी खारिज कर रहे थे। बेहद विषम हालातों में इनकी जिद्द के कारण सारा देश इनसे नाराज था। इनसे मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों से लेकर समाज के अन्य सभी वर्गों के महत्वपूर्ण लोग धरने को खत्म करने के लिए हाथ जोड़ रहे थे। पर धरने देने वाली औरतें किसी की भी सुनने को तैयार नहीं थीं। यह तो चोरी और ऊपर से सीनाजोरी वाली स्थिति थी। पहली बात यह कि शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ धरना ऐसे स्थान पर चल रहा था, जहां पर उसे चलना ही नहीं चाहिए था। पर शुरू में ही प्रशासन और दिल्ली पुलिस की लापरवाही और नाकामी के कारण ये औरतें धरने पर बैठ गईं या कुछ दिग्भ्रमित समाज विरोधी तत्वों के द्वारा बैठा दी गईं। उसके बाद इन्होंने पूरी सड़क घेर ली और अपनी जगह से हिलने के लिए तैयार नहीं थीं। सही बात यह है कि धरना या प्रदर्शन इस तरह से हो ताकि जो इसका हिस्सा नहीं हैं, उन्हें दिक्कत न हो।
जरा याद करें 32 साल पहले यानी 1988 के महेन्द्र सिंह टिकैत के किसान आंदोलन की। टिकैत के नेतृत्व में लाखों किसान राजधानी के दिल्ली बोट क्लब पर आ गए थे। कुछ उसी अंदाज में जैसे आजकल किसान दिल्ली में अपनी मांगों के समर्थन में आए हुए हैं। फर्क इतना ही है कि इसबार किसान बोट क्लब के स्थान पर दिल्ली की सीमाओं पर स्थित हाईवे पर बैठे हैं। वह अक्टूबर का महीना था। जाड़ा दस्तक देने लगा था। राजधानी के बोट क्लब पर लगभग सात लाख से ज्यादा किसानों को संबोधित करते हुए भारतीय किसान यूनियन के नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने कहा “खबरदार इंडिया वालों। दिल्ली में भारत आ गया है।” दिल्ली पहली बार एक सशक्त किसान नेता को देख रही थी।
बोट क्लब पर हुक्के की गुड़गुड़ाहट
बोट क्लब और इंडिया गेट पर ही किसान, भोजन तैयार करने के लिए भट्टियां सुलगाने लगे थे। वे हुक्के की गुड़गुड़ाहट के बीच दिल्ली से अपनी मांगों को माने जाने से पहले टस से मस होने के लिए तैयार नहीं थे। रोज देश के तमाम विपक्षी नेता टिकैत से मिलने आ रहे थे। महाराष्ट्र के असरदार किसान नेता शरद जोशी भी टिकैत के साथ धरना स्थल पर बैठे थे। टिकैत की सरपरस्ती में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) ने केन्द्र सरकार के सामने अपनी कुछ मांगे रखी थी। वे गन्ने का अधिक समर्थन मूल्य के अलावा मुफ्त बिजली-पानी की मांग कर रहे थे। राजधानी के दिल में लाखों किसानों की उपस्थिति से सरकार की पेशानी से पसीना छूटने लगा था। पर आम जनता को कोई परेशानी नहीं हुई थी क्योंकि किसानों ने सड़कों को नहीं घेरा था।
दरअसल गुजरे कुछ बरसों से प्रदर्शनकारी राजमार्गों को घेरने लगे हैं। इस कारण आम जनता को भारी कष्ट होता है। देखिए, अगर लोकतंत्र में आपको अपनी मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन का अधिकार है, तो बाकी को यह भी अधिकार है कि वह आपके आंदोलन से दूर रहे। उस इंसान के हितों का सम्मान भी तो आंदोलनकारियों को करना ही होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
Related Posts
Post Comment
राशिफल
Live Cricket
Recent News

11 Mar 2025 23:35:54
पूर्व के एक बड़े पुलिस पदाधिकारी के कार्यकाल के दरम्यान हुई गिरफ्तारियों पर अगर नजर डाली जाए तो पता चलेगा...
Epaper
YouTube Channel
मौसम

Comments