उदय कुमार
खड्ग के प्रहार से वीरभद्र मूर्छित हो चुका था। महारानी शम्मेश्वरी अभी भी दर्प और अभिमान में डूबकर वीरभद्र के मर्त्य शरीर को निहार रही थी। उसने उस प्रस्तर मिश्रित मैदान में लगभग चीखते हुए बोला कि एक सामंत में अभी भी इतना साहस नहीं हुआ है कि वह महारानी शम्मेश्वरी को अपने बाँहों में भरने का स्वप्न देख सके। वीरभद्र को अब केवल सहयाद्री पर्वत श्रृंखला में बसे ग्राम्य जीवन की प्रतिध्वनियाँ सुनाई पड़ रही थी। बचपन के पदचाप उसे स्पष्ट दिख रहे थे जब शम्मेश्वरी उसके साथ ही बड़ी हो रही थी। पीछे से उसका वीर-वीर चिल्लाकर दौड़ना और फिर उसका कहना कि “वीर एक दिन तुम मुझे यूँ ही छोड़कर चले जाओगे”, वीर केवल मुस्कुराकर रह जाता था और कहता शम्मी मनुष्य साथ चलने के लिए ही जन्म लेते हैं। वीरभद्र पुरे सहयाद्री का सबसे बड़ा धनुर्धर था। शील और भद्रता की प्रतिमूर्ति था। शम्मी उसके सामीप्य में शीतलता महसूस करती थी। उसके सपनों का वृक्ष वीरभद्र था। श्म्मेश्वरी भी रूप और लावण्य की प्रतिमूर्ति थी। एक बार आखेट पर महाराज गजकेसरी सहयाद्री पहुचें। शिकार की तलाश में महाराज भीमा के तट पर अकेले ही विचरण करने लगे। अचानक शेरों के झुंड ने महाराज को घेर लिया। असहाय महाराज ने कानन के इस खंड में खूब जोर से आर्तनाद किया। वीरभद्र उस समय अपने अश्व को भीमा की तेज धार में नहला रहा था। उसने वायु के वेग से अश्व पर सवार हो कर महाराज को शार्दुलों के मुंह से सुरक्षित निकाल लिया। महाराज वीरभद्र को अपने संग राजप्रसाद ले आये और अपनी सभा में जगह दे दी। एक दिन सहयाद्री से शम्मेश्वरी वीरभद्र को ढूंढते हुए आ गयी। आँखों में आँसुओं की मोटी धारा को लिए बोली कि वीर जब से तुम गए हो मेरा मन नहीं लगता है। वीर बोला, इस बार आकर तुम्हारे पिताजी से तुम्हारा हाथ इस हेमंत ऋतु में मांग लेंगे। जैसे ही शम्मेश्वरी चलने को आतुर हुई महाराज की नजर शम्मेश्वरी पर पड़ गई और उसकी सुंदरता देख कर अवाक् रह गए। शम्मी जैसी सुन्दर मनमोहिनी मनमयुरनी चंचल हिरणी गजगामिनी मधुर लावणी स्त्री उस पुरे दक्षिणापथ में उन्होंने नहीं देखा था। महाराज की सांसें उष्ण होकर तीव्र हो गयी। उन्होंने राजपुरोहित संग महामंत्री को सहयाद्री शम्मेश्वरी का हाथ मांगने के लिए भेज दिया। अग्नि के साथ फेरे और तैंतीस कोटि देवी देवताओं को साक्षी मानकर शम्मी महारानी शम्मेश्वरी बन गयी। सह्त्र दासियों और कोसों तक फैले राजप्रसाद में शम्मेश्वरी सहत्र कमलदल के समान खिल उठी। वीर कब का उसका भूत हो चूका था और उधर वीर ने कभी पर-स्त्री का संसर्ग नहीं किया। उसके जीवन में शम्मेश्वरी ही एक स्त्री थी जो अब महारानी हो चुकी थी। महाराज ने कई बार वीरभद्र को शादी के लिए कहा पर वह राज कार्यों में अपने आप को डूबा लिया। पर एक दिन केवल शम्मेश्वरी को देखने भर की इच्छा से जब महल पहुंचा तो उसके इस आचरण को राजद्रोह समझा गया। महारानी ने घोषणा की कि वह खुद वीरभद्र को दंड देगी। और आज शम्मेश्वरी उसके अर्द्ध मुर्छित शरीर को रथ से घसीट कर लायी और बोली इसे नीचे गहरी खाई में फेंक दो। जैसे ही शरीर को नीचे शम्मेश्वरी फेंकी, वीरभद्र को सब कुछ हल्का लगने लगा। उसका शरीर नीचे गिर रहा था और वह खुद को ऊपर उठता हुआ पा रहा था। शरीर तेजी से विरल वृक्षों को छोड़कर घने वृक्षों से टकरा रहा था और अंत में पत्थरों से टकरा कर धप्प की आवाज के साथ निष्प्राण हो गया। श्रृगालों और भेड़ियों ने एक साथ उड़ान भरी और पहला प्रहार वीरभद्र के चमकीले नेत्रों पर पड़ी जिसमें कभी गजब का सम्मोहन था।
शेष अगले अंक में . . . . . .
(लेखक बीएसएफ में कमांडेंट है।)
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